भारतभूमि को श्रृष्टि में मानव जीवन, जीव-जंतुओं अर्थात सम्पूर्ण प्राणिमात्र के सर्वोत्तम स्थान कहा गया है ! यहाँ का दोआब का क्षेत्र तो ऐसा है,कि जब सम्पूर्ण श्रृष्टि समाप्त होने के कागार पर होगी उस समय में भी यहाँ मनुष्य जीवन जिया जा सकेगा I वन-उपवनों से सुसंपन्न यह भारतवर्ष विश्व में अपनी प्राकृतिक सम्पदा और सौंदर्य के लिए अपनी एक विशेष पहचान लिए हुए था I
भारत में परम्परागत जीवनशैली, प्रकृति सम्मत जीवन सदैव ही प्राणिमात्र एवं पर्यावरण के अनुकूल रहने वाला था ? किन्तु विकास के अन्धानुकरण में, पश्चिम की जीवनशैली की चाह में भारत में वन क्षेत्र लगातार घट रहे हैं I पहाड़ों की लगातार कटाई, पूरा दण्डकारण्या वन क्षेत्र, जो कि मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ़,उड़ीसा,आन्ध्र सहित महाराष्ट्र तक फैला हुआ यह क्षेत्र सघन वन क्षेत्र था I ऊपर में हिमालय, तलहटी में केरल जैसा हरित प्रदेश, पूर्वोत्तर राज्यों की हरीतिमा भी हमसे छिपी नहीं है I ऐसा पूरा भारत वर्ष जिसे जीवन जीने का सर्वोत्तम स्थल माना गया ! ऐसे देश में वर्तमान की चर्चा करने पर पीड़ा होती है और भविष्य तो और भी भयावह नजर आता है ?
किसी भूभाग में पारिस्थितिक संतुलम देखें तो कुल भूमि क्षेत्र का 33 प्रतिशत वन क्षेत्र होना चाहिए ! किन्तु भारत में अब इसका अनुपात रह गया है 24 प्रतिशत ! और लगातार घट रहा है I चाहे सरकारी नीतियाँ हों, और चाहे निजी क्षेत्र द्वारा लगातार वन क्षेत्र और कृषियोग्य भूमि पर शहर बसाये जा रहे हैं I अन्य प्रकार के भवन, चौड़ी-चौड़ी सड़कों का निर्माण, पहाड़ों का अतिक्रमण, खनिज सम्पदा के लिए भूगर्भ से अत्याधिक दोहन, झारखण्ड के धनबाद आदि क्षेत्रों में भूमि नीचे से खाली हो चुकी है, लापरवाहियों के कारण भूमि के नीचे कोयले में लगी आग वहां मानव जीवन के समक्ष एक चुनौती है I चेन्नई समेत आज देश के अनेक शहरों एवं भूभागों में भूजल समाप्त हो चुके हैं I दिल्ली जैसे महानगर में हम प्रतिवर्ष वायु प्रदुषण की मार झेलते हैं I
विश्व स्तर पर प्रतिवर्ष लगभग एक करोड़ हेक्टेयर वन क्षेत्र घटते जा रहे हैं। विकास के नाम पर भारत में भी बड़े पैमाने पर जंगल काटे जा रहे हैं I इसी सन्दर्भ में ‘भारतीय वन सर्वेक्षण रिपोर्ट’ पिछली रिपोर्ट का उल्लेख करूँ तो यह हमारे लिए अत्यंत चिंता भरी है I रिपोर्ट में पता चला है कि वनावरण क्षेत्र देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का महज 24 प्रतिशत ही रह गया है।
किन्तु तोडा सा सुकून देने वाली बात यह है, कि भारत में 2,261 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र की वृद्धि भी हुई है I मतलब यह है कि लोग जागरूक हो रहे हैं, किन्तु प्रशासन के स्तर पर, नीतियों के स्तर पर और सुनियोजित निजी क्षेत्र के षड्यंत्र के कारण वन क्षेत्रों व् कृषियोग्य भूमि पर अतिक्रम जल्द ही देश में रुक पायेगा यह सम्भावना कम नजर आती है I
देश में 52 टाइगर रिजर्व क्षेत्र हैं, इनके वन क्षेत्र में भी 22.62 वर्ग किलोमीटर की कमी देखी गयी है I यह बाघ संरक्षण के लिए एक नई चुनौती है। जहां बाघ हैं वहां का भी जंगल कट रहा है। यह हम सभी के लिए चिंता की बात है I श्रृष्टि पर पारिस्थितिक संतुलन की दृष्टि से पूरी दुनिया में जहां-जहां जंगल है, उस हिस्से में ही दुनिया के 80 प्रतिशत जीव-जंतुओं का रहवास भी है। अतः इन्हीं वनों, वन्य-जीवों और संपदाओं पर मनुष्य का अस्तित्व निर्भर है।
तीव्र गति से जनसंख्या वृद्धि हो रही है, बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण बड़े पैमाने पर हो रही वनों की कटाई हो रही है। प्रकृति के बिगड़ते चक्र और ग्लोबल वार्मिंग का असर हम saf महसूस कर सकते हैं I ‘संयुक्त राष्ट्र’ द्वारा पिछले साल जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, ”एक तिहाई संक्रामक रोग वनों की कटाई के कारण होते हैं।” इन प्रभावों का परिणाम जलवायु परिवर्तन पर पड़ता है। यही वजह है कि सरकारों द्वारा वन क्षेत्र को बढ़ाने के लिए हर स्तर पर प्रयास किए जाने चाहियें। इसलिए संभवतः पिछले कुछ वर्षों में भारत सरकार द्वारा वन उत्सव, सामाजिक वानिकी, वृक्षारोपण जैसी योजनाओं पर गंभीरता से कार्य किया जा रहा है।
अपने देश में वन क्षेत्र का अध्ययन वर्ष 1987 से प्रारंभ हुआ था। इस अध्ययन को प्रत्यक्ष सर्वेक्षण करने सहित शिक्षाविदों, जानकारों एवं इस क्षेत्र में अनुभवी एजेंसियों से प्राप्त जानकारी के आधार पर किया गया था । 90 के दशक से इस क्षेत्र में उपग्रह इमेजरी, साथ ही रिमोट सेंसिंग जैसी तकनीक भी उपयोग में लायी जा रही है। हाँ यह बात सत्य है, कि अब सामान्य जन वृक्षारोपण के लिए सजग हुए हैं ! किन्तु यह बात भी सत्य है, जहाँ हम प्राकृतिक वनों की बात करें तो वहां मानकों के आधार पर यदि कुल वन वृक्ष के मुकाबले यदि 10% से कम वृक्षारोपण हो तो उसे ‘जंगल’ की श्रेणी में नहीं रखा जाता सकता। इसलिए किसी स्थान का जंगल यदि आप बचाना चाहते हैं तो इसके लिए हमें उस स्थान पर 10% से अधिक वृक्षारोपण करना होगा । यहाँ हम प्राकृतिक वन क्षेत्र ‘झाड़ी वन’, ‘दुर्लभ वन’, ‘मध्यम सघन वन’ और ‘अत्यंत सघन वन’ की भीके रूप में वर्गीकृत किया गया है। ‘भारतीय वन सर्वेक्षण रिपोर्ट’ हर दो साल में प्रकाशित होती है, जिससे देश भर में वन क्षेत्र की स्थिति के बारे में अपडेट किया जा सके। जैसा कि कहा जा चुका है कि इस साल जारी रिपोर्ट ने भारत को थोड़ी राहत दी है। हालांकि, इस रिपोर्ट में वन क्षेत्रों पर अतिक्रमण एक प्रमुख मुद्दा है। इसलिए, राज्य के साथ-साथ केंद्र सरकार के लिए भी यह रिपोर्ट इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण है कि वह इस चुनौती से कैसे निपटेगी, समस्त देशवासियों के समक्ष यह एक यक्ष प्रश्न है ?
जीवन यापन में पानी एक एक प्रमुख घटक है I पेढों से वाष्पीकरण से हो बादल बनते हैं I वर्षा का प्रमुख श्रोत और भूजल को संतुलित करने में, शुद्ध वायु प्रदान करने में धरा पर वृषों का बड़ा महत्व ही है I श्रृष्टि में जीव-जंतुओं के जीवन और प्राकृतिक सौंदर्य को बनाये रखने में हमारे वनों का बड़ा महत्त्व है I यह सरकार भी जानती है और समाज भी, सामने खड़ी चुनौती को देख सभी सजग तो हुए हैं, किन्तु प्रयास की दिशा सही करने की जरुरत है I पेढ लगायें अच्छी बात है I लेकिन सरकार और प्रशासन को शहरीकरण के मोह को छोड़ना होगा, विकास हेतु संचालित अपनी नीतियों की समीक्षा करनी पड़ेंगी वहीँ समाज के सभी वर्गों को मिलकर प्रकृति अनुकूल जीवन जीने की शैली को मुड़ना होगा I अपनी जरूरतों पर कहीं तो अंकुश लगाना होगा I
मनुष्य अपनी सुविधा, ऐसो आराम के लिए जिस प्रकार से कंक्रीट के जंगल बनाता जा रहा है I यह सच मानिये ! आने वाले 20-25 वर्षों में पूरी पृथ्वी पर जल और अन्न दोनों का संकट आने वाला है I शारीरिक विशंगातियाँ, रोगयुक्त जीवन और जीवन में अशांति ही अशांति होने से मानव जीवन का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा I अतः सम्पूर्ण देश और हमारी इस श्रृष्टि को यदि बचाना चाहते हैं ? प्रकृति अनुकूल विकास का मॉडल एवं योजनायों पर विचार करना चाहिए I वोट बैंक की राजनीति की चिंता किये बगैर हमें प्रयावरण अनुकूल व्यवस्था और उसी अनुसार प्रशासनिक व्यवस्था खड़ी करनी होंगी I
देश में वन-पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में चल संस्थानों/ अनुसंधानों की कार्यशैली पर विचार करने की जरुरत है I प्रशासनिक स्तर पर की गयी लापरवाहियों पर भी ठोस कार्यवाही सरकार को करनी ही चाहियें I शहरों-कस्बों में विकास हो, व्यवस्थाएं हों, लेकिन उनके नाम पर हो रहे अपव्यय पर भी अंकुश लगाना होगा I उनकी सीमायें तय करनी होंगी I देश में बहु-एजेंसियोंके समन्वय पर भी विचार करना होगा I साथ ही नागरिकों में कर्त्तव्य भावना जगाने के लिए भी सुनियोजित प्रयास करने होंगे I
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देश में पर्याप्त वन क्षेत्र और कृषि योग्य भूमि बचाने के प्रति सरकार और समाज अभी भी सतर्क और गंभीर कदम नहीं उठाएगा तो एक-दो वर्ष पश्चात बहुत देर हो जाने वाली है I जब जीवन के समक्ष ही चुनौती आकर खड़ी हो जाएगी तो तब क्या करेंगी आपकी बनायीं बहुमंजिली इमारतें, एक्सप्रेस-वे और बड़े बड़े पुल और सुरंगें, आपकी महँगी कारें और लग्जरी व्यवस्थाएं सब धरे रह जायेंगे I स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाएगी अगर यही हाल चलता रहा तो ! अतः हम सभी को मिलकर सामूहिक प्रयास करने होंगे I प्रकृति संरक्षण के लिए सरकारों को कड़े कदम उठाने होंगे I तभी समाधान का मार्ग निकल सकेगा I
लेखक
(प्रमोद कुमार)
सामाजिक कार्यकर्ता
नई दिल्ली