आश्रय लेना मनुष्य का स्वभाव है मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, और उसकी प्रवृत्ति में आश्रय लेना एक प्राकृतिक प्रक्रिया रही है। जन्म से लेकर मृत्यु तक, मनुष्य किसी-न-किसी रूप में आश्रय लेता है — कभी माता-पिता का, कभी समाज का, कभी प्रकृति का, तो कभी ईश्वर का।
यह आश्रय केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक स्तर पर भी होता है। इस लेख में हम “आश्रय लेना मनुष्य का स्वभाव है” विषय की गहराई से विवेचना करेंगे।
1. आश्रय का अर्थ और स्वरूप आश्रय का शाब्दिक अर्थ होता है –
सुरक्षा, संरक्षण या सहारा।
यह सहारा किसी रूप में हो सकता है – कोई व्यक्ति, स्थान, विचार, भावना या ईश्वर। जब मनुष्य को असुरक्षा, भय, परेशानी या अनिश्चितता महसूस होती है, तो वह स्वाभाविक रूप से किसी न किसी का सहारा ढूंढता है। यह सहारा उसे स्थिरता, आत्मविश्वास और जीने की प्रेरणा देता है।
2. बचपन से ही आश्रय की आवश्यकता
जैसे ही एक शिशु जन्म लेता है, वह सबसे पहले अपनी माँ की गोद का आश्रय लेता है। माँ की गोद उसके लिए संसार की सबसे सुरक्षित जगह होती है। बच्चा बोल नहीं सकता, अपनी आवश्यकताएँ व्यक्त नहीं कर सकता, लेकिन वह माँ के स्पर्श, दूध और स्नेह में जीवन का संपूर्ण आश्रय पाता है। यह स्वाभाविक है, क्योंकि शिशु अकेले अपने अस्तित्व को बचा नहीं सकता। जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, उसका आश्रय बदलता रहता है — परिवार, शिक्षक, मित्र, समाज। यह क्रम जीवन भर चलता रहता है।
3. सामाजिक आश्रय की आवश्यकता
मनुष्य अकेले नहीं जी सकता। वह समाज में रहकर ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। समाज उसे भाषा, व्यवहार, संस्कार, शिक्षा, नियम और संस्कृति प्रदान करता है। सामाजिक संबंध, चाहे वह परिवार हों, मित्र हों या पड़ोसी — यह सभी मनुष्य को मानसिक और भावनात्मक आश्रय प्रदान करते हैं। जब मनुष्य दुखी होता है, तो वह किसी अपने के कंधे पर सिर रखकर रोना चाहता है। यह एक मानसिक आश्रय है। जब वह किसी संकट में होता है, तो वह अपने परिवार या समुदाय से सहायता की अपेक्षा करता है। यह सामाजिक आश्रय की भावना को दर्शाता है।
4. धार्मिक और आध्यात्मिक आश्रय
जब भौतिक जीवन की चुनौतियाँ बढ़ जाती हैं और मनुष्य को कहीं स्थायित्व नहीं मिलता, तब वह ईश्वर की ओर आकृष्ट होता है। “ईश्वर की शरण में जाना” — यह वाक्य केवल धार्मिक भावना नहीं, बल्कि गहरे मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक आश्रय की खोज है। धार्मिक स्थल जैसे मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे आदि सिर्फ पूजा के स्थान नहीं होते, बल्कि मानसिक शांति और सांत्वना का केंद्र भी होते हैं। वहाँ जाकर मनुष्य अपने भीतर की बेचैनी को शांत करता है, क्योंकि उसे लगता है कि कोई है जो उसकी सुनता है, समझता है और उसकी रक्षा करेगा।
5. आश्रय और भय भय मनुष्य को आश्रय
की ओर प्रेरित करता है। जब हम किसी खतरे या अनिश्चितता का सामना करते हैं, तो हमारी प्रवृत्ति होती है कि हम किसी मजबूत व्यक्ति, संस्था या शक्ति का सहारा लें।
उदाहरण के लिए:
• बच्चे अंधेरे में डरते हैं और माँ-पिता के पास जाकर सोते हैं।
• बुढ़ापे में लोग अपने बच्चों का सहारा लेना चाहते हैं।
• युद्ध या आपदा के समय लोग सरकार या सेना की शरण में जाते हैं।
यह सभी उदाहरण दर्शाते हैं कि भय और असुरक्षा की स्थिति में मनुष्य स्वाभाविक रूप से आश्रय खोजता है।
6. मानसिक और भावनात्मक आश्रय
आज की तेज़ रफ्तार और तनावपूर्ण ज़िंदगी में मनुष्य को मानसिक और भावनात्मक आश्रय की और भी अधिक आवश्यकता है।
यह आश्रय उसे कई रूपों में मिल सकता है:
• किसी मित्र से बात करके
• किसी किताब को पढ़कर
• ध्यान और योग के माध्यम से
• कला, संगीत या साहित्य में डूबकर यह सभी मानसिक आश्रय के रूप हैं जो मनुष्य को तनाव, अवसाद और चिंता से उबारने में सहायक होते हैं।
7. आश्रय लेना: कमजोरी या समझदारी?
कुछ लोग मानते हैं कि आश्रय लेना कमजोरी की निशानी है, लेकिन यह सही नहीं है। आश्रय लेना एक समझदारी भरा कदम है, जब तक वह आश्रितता में न बदल जाए। आश्रय लेना सहायता स्वीकार करना है, यह मानना है कि हम सब कुछ अकेले नहीं कर सकते।
महात्मा गांधी भी कहते थे, “प्रार्थना एक ऐसी शक्ति है जिससे मैं अपनी दुर्बलताओं को शक्ति में बदलता हूँ।”
यहाँ प्रार्थना एक आध्यात्मिक आश्रय का रूप है।
8. प्रकृति से भी आश्रय
मनुष्य अपने अस्तित्व के लिए प्रकृति पर निर्भर है
— जल, वायु, भोजन, आश्रय स्थल
— यह सब प्रकृति ही प्रदान करती है। लेकिन दुर्भाग्यवश आधुनिक मनुष्य ने इस प्राकृतिक आश्रय का दोहन किया है। आज हमें यह समझने की ज़रूरत है कि प्रकृति से लिया गया आश्रय हमें जिम्मेदारी और कृतज्ञता के साथ निभाना चाहिए।
9. डिजिटल युग में आश्रय
वर्तमान तकनीकी युग में सोशल मीडिया, ऑनलाइन समुदाय और डिजिटल कनेक्शन ने भी एक नए प्रकार के आश्रय का निर्माण किया है। लोग अपने विचार, भावनाएँ, समस्याएँ सोशल मीडिया पर साझा करते हैं और वहाँ से समर्थन या सांत्वना प्राप्त करते हैं।
हालांकि यह आश्रय कभी-कभी अस्थायी या भ्रमित करने वाला भी हो सकता है, लेकिन यह दर्शाता है कि मनुष्य हर युग में, हर परिस्थिति में, किसी न किसी रूप में आश्रय ढूंढता है।
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निष्कर्ष:
आश्रय – जीवन का आधार
“आश्रय लेना मनुष्य का स्वभाव है” — यह केवल एक कथन नहीं, बल्कि मानव जीवन की एक गहरी सच्चाई है। यह न तो दुर्बलता है, न ही पलायन। यह मनुष्य की सामूहिकता, भावनात्मकता और सामाजिकता का प्रतीक है। यह वह सेतु है जो एक अकेले व्यक्ति को सम्पूर्ण जगत से जोड़ता है।
जब तक मानवता जीवित है, तब तक आश्रय की खोज और आवश्यकता बनी रहेगी — चाहे वह माँ की गोद हो, मित्र की मुस्कान हो, समाज की सहानुभूति हो, या ईश्वर का आशीर्वाद।
लेखक
(प्रमोद कुमार)
आध्यात्मिक प्रवक्ता
नई दिल्ली, भारत
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