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सनातन धर्म - motivationtoall.com
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सनातन धर्म प्रकृति के मूल गुणधर्म के अनुरूप, इस सम्पूर्ण सृष्टि में प्राणी मात्र के अस्तित्व उसके जीवन जीने के विधान का नाम है, सनातन धर्म । प्राणीमात्र के जीवनयापन सहित सम्पूर्ण सृष्टि के संचालन के यम-नियम के अनुरूप ही मनुष्य की जीवनशैली कैसी हो, स्थानीय भौगोलिक एवं जलवायु के अनुसार खान-पान, रहन-सहन, बोली-भाषा, तीज-त्यौहार आदि संस्कृति रहे । मनुष्य जन्म को मुक्ति का साधन माना गया है, अतः इस कालखंड में हम आत्मकल्याण के मार्ग पर चलकर, उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों और सिद्धांतों के अनुरूप जीवन जीते हुए, एक समृद्ध जीवन पद्धति के अनुरूप व्यवहार करें, इसके लिए सृष्टि के रचेताओं द्वारा जिस धर्म का अनुसरण किया गया वही है “सनातन धर्म”।

सनातन धर्म ही एकमात्र धर्म है, जिसे धर्म कहा जा सकता है, क्योंकि वह वैज्ञानिक रूप से पुष्ट, वेद-उपनिषदों और पुराणों में व्याख्यायित विधान के अनुरूप निर्वाण की ओर ले जाता है । भोगता भाव से परे, सृष्टि की रचना के अनुरूप, उसके साथ ताल से ताल मिलकर चलने वाली प्राणीमात्र की प्रक्रिया ही हमारी धार्मिक मान्यताएं बनी । इस सम्पूर्ण सृष्टि में प्राणी को उसके आत्मकल्याण हेतु इस वसुंधरा के सदुपयोग की जितनी उपयोगिता लगे वह उसका उपभोग कर सकता है, किन्तु उतना ही उसे वापस देने का भी विधान है ।

प्रकृति से हुई धर्म की उत्पत्ति              

हम सभी यह जानते हैं, कि सृष्टि में प्रकृति की रचना के उपरांत पृथ्वी पर मानव सहित समस्त प्राणीमात्र की उत्पत्ति हुई । प्रकृति अपने आप अपना संतुलन करना जानती है, प्राणी मात्र जिसमें जीव-जन्तु, कीट पतंगे, पशु-पक्षी, चर-अचर सभी का जीवन, इस प्रकृति के अनुरूप सुचारु रूप से चल सके यह सनातन धर्म में सहज व्यवस्था है । इसमें से मानव की व्यवस्था अलग है, चूंकि उसके पास विवेक है । उसे मानव देह आत्मकल्याण के लिए मिली है, न कि सृष्टि के दोहन के लिए । चूंकि उसे परमपिता परमात्मा द्वारा विवेक और बुद्धि प्रदान की गई है, इसलिए उससे अपेक्षा है, कि वह प्रकृति के संचालन में अपना योगदान देगा, प्रकृति से मात्र जीवन यापन के लिए लेना और उसे उतना लौटा भर देना, यह के सामान्य व्यवस्था व्यवहार में आती है । जलवायु एवं प्राकृतिक विषमताओं के अनुरूप लोग अपने रहन-सहन, लोकव्यवहार, भोजन एवं परंपराओं को व्यवहार में लाने का कार्य प्रारंभ हुआ ।

इसे इस रूप में भी कह सकते हैं, सृष्टि के सफल संचालन हेतु एक समृद्ध और सुचारु व्यवस्था होनी ही चाहिए, अतः इसी आदर्श व्यवस्था का नाम है, सनातन धर्म ! एक समृद्ध जीवन पद्धति, मनुष्य जीवन यापन और रहन-सहन, आचार-व्यवहार की आदर्श व्यवस्था, एक सांस्कृतिक जीवन पद्धति को हम सनातन धर्म के रूप में स्वीकार करते हैं । और यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जब से सृष्टि की रचना हुई है तभी से सनातन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ है । अतः सृष्टि पर एकमात्र धर्म यदि कोई है तो वो है सनातन धर्म, शेष सभी को पंथ और संप्रदाय कहा जा सकता है । अब विषय आता है, कि पंथ और संप्रदाय एवं धर्म में भेद क्या है ?

पंथ-संप्रदाय और धर्म में अंतर

सहज भाषा में समझें तो ध्यान में आता है, रिलिजन, मजहब या संप्रदाय यह एक पुस्तकबध्द व्यवस्था है। इन की एक पुस्तक होती है। जैसे पारसियों की झेंद अवेस्ता, यहुदियों की ओल्ड टेस्टामेंट, ईसाईयों की बायबल, मुसलमानों का कुरआन और कम्यूनिस्टों का जर्मन भाषा में ‘दास कॅपिटल’ (अन्ग्रेजी में द कॅपिटल) आदि । रिलिजन, मजहब या संप्रदाय यह पुस्तकबध्द होने के कारण अपरिवर्तनीय होते हैं। इन में लचीलापन नहीं होता। हम कह सकते हैं, भारत में सम्प्रदायों के विस्तार का बौद्ध मत से आरम्भ हुआ । बौध सम्प्रदाय भारत का प्रथम प्रचारक आधारित सम्प्रदाय बना । अपने-अपने स्थानों, और मान्यताओं में भिन्न विचार तो लोगों के हुआ करते हैं । कम ज्यादा संख्या में लोग उनके अनुयायी भी हुआ करते हैं। किन्तु प्रचार के माध्यम से अपने सम्प्रदाय को माननेवालों की संख्या बढाने के प्रयास कभी पूर्व में प्रचलन में इससे पहले नहीं आए । ईसाईयत का प्रारम्भ लगभग 2000 वर्ष पूर्व एवं  इस्लाम का प्रारंभ लगभग 1400 वर्ष पूर्व हुआ था । अर्थात इन्हें किसी के द्वारा प्रारंभ किया गया, इसलिए इन्हें पंथ अथवा संप्रदाय कहा जाता है ।

 “धर्म: धार्मिक जीवन दृष्टि”, अर्थात जब से सृष्टि पर मानव जीवन का उदय हुआ, उसी समय से मानव की जो धार्मिक जीवन दृष्टि निर्मित हुई, वही सनातन धर्म है । सनातन धर्म नैसर्गिक जीवन पद्धति है । इसलिए यही एकमात्र धर्म इस धराधाम पर है । प्रमुखतः सनातन धर्म एक प्रमुख भारतीय धार्मिक परंपरा होने के साथ-साथ जिसे भारतीय उपमहाद्वीप की संस्कृति और धार्मिक त्रैतीयक के आधार पर आधारित माना जाता है। इसका शास्त्रीय और धार्मिक ग्रंथों में महत्वपूर्ण स्थान है, जैसे कि वेद, उपनिषद, भगवद गीता, और महाभारत। सनातन धर्म के अनुसार, इसमें आत्मा की अनन्तता, धर्म, कर्म, और मोक्ष जैसे महत्वपूर्ण धार्मिक तत्व होते हैं। यह धर्म विविध पांथों, सम्प्रदायों और आचार्यगणों के द्वारा व्यक्त हो सकता है, और यह भारतीय समाज की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक जीवनशैली का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य मोक्ष के लिए ही होता है और यही सनातन धर्म का मूल है ।

धर्म ही सर्वोच्चय है :-

जैसे सृष्टि के सफल संचालन के लिए धार्मिक व्यवस्था आत्मसात की गई । वैसे ही जब से देश और राज्य, उपनिवेश वाद का उदय हुआ तभी से सत्ता व्यवस्था को अपनाया गया । किन्तु उसमें मनुष्यों ने कानून व्यवस्था को प्रमुख मानते हुए, प्राकृतिक संसाधनों आदि पर आधिपत्य के लिए जिस व्यवस्था  निर्माण किया गया उसे सामान्य भाषा में प्रशासन एवं सत्ता कहते हैं । किन्तु धर्म सत्ता को उससे ऊपर माना गया है । इसे सामान्य भाषा में, और सरलता से समझने हेतु, हम कह सकते है, कि जहां राज्य सत्ता समाप्त हो जाती, वहाँ से हमारी धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप ही हमारे स्वयं का और इस सृष्टि का संचालन होता है । वर्तमान राजनैतिक सत्ताओं से पूर्व राजशाही में राजा भी धर्मदण्ड को मान्यता प्रदान करते थे, अतः अपने दरबारों में संतों-ऋषियों को प्रमुख स्थान दिया जाता था । मनुष्य के जन्म और मृत्यु के समय हमारी धार्मिक(संस्कारों) पद्धति के अनुरूप ही विधान होता है।

धर्म हमारी आत्मा का नैतिक कानून है । धर्म हमारी आंतरिक स्वीकार्यता का विषय है । धर्म सृष्टि के अनुरूप, वसुधा को साकार रूप देने वाले विधाता ने, हमारी परम सत्ता ने जो यम-नियम बनाए वही सर्वोच्चय सत्ता है । हमारे संस्कार, लोक लिहाज, सामाजिकता और नैतिक मूल्य, हमे हमारे धर्म से ही प्राप्त होते हैं । हमारी व्यवहार, स्वभाव और हमारी सोच अर्थात हमारी जीवन दृष्टि हमें हमारी धार्मिक मान्यताओं से प्राप्त होती हैं । अतः जो इस सृष्टि के सृजन के समय से ही प्रकृति और जीव मात्र के तालमेल के लिए बनाए गए यम नियमों को धर्म कहा गया है, और यह एकमात्र सनातन धर्म में ही निहित हैं या फिर यह भी कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी, सृष्टि के सृजन के समय सनातन धर्म को ही व्यवहार में लाने का विधान रहा होगा ।  

सत्ता एक शासन व्यवस्था है : शासन व्यवस्था है, न कि जीवन पद्धति ! इसलिए इसका अनुपालन हो, किन्तु धर्म के अनुसार जिस आदर्श जीवन की मनुष्य के लिए कल्पना की गई उसपर हम सभी चलने का प्रयास करेंगे तो यह समस्त संसार सुचारु रूप से स्वतः ही चल सकेगा । 

लेखक

(प्रमोद कुमार)

सामाजिक कार्यकर्ता

नई दिल्ली

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